Blood ( लहू) – गालिब

रगोमें दौडते फिरने के हम नही कायलआँखोंसे न टपका तो लहू क्या है धमन्यांमधून नुसते दौडत, फिरत राहण्याची आम्हाला हौस नाही, जर एखाद्याचे दु:ख पाहून आमच्या डोळ्यात पाणी आले नाही तर या (सळसळणाऱ्या) रक्ताचा काय उपयोग -- We do not have the temptation to move around in the arteries, if we do not have tears… Continue reading Blood ( लहू) – गालिब

लाई फिर इक लग़्ज़िशे-मस्ताना तेरे शहर में – कैफ़ि आज़मी

कैफ़ि आज़मीउर्दू शायरी,कैफ़ि आज़मी April 26, 2019 0 Minutes लाई फिर इक लग़्ज़िशे-मस्ताना तेरे शहर में ।फिर बनेंगी मस्जिदें मयख़ाना तेरे शहर में । आज फिर टूटेंगी तेरे घर की नाज़ुक खिड़कियाँआज फिर देखा गया दीवाना तेरे शहर में । जुर्म है तेरी गली से सर झुकाकर लौटनाकुफ़्र है पथराव से घबराना तेरे शहर में । शाहनामे लिक्खे हैं खंडरात… Continue reading लाई फिर इक लग़्ज़िशे-मस्ताना तेरे शहर में – कैफ़ि आज़मी

बेघर – जावेद अख़्तर

15h ago जावेद अख़्तरहिंदीहिंदी कविताहिंदी साहित्य शाम होने को हैलाल सूरज समंदर में खोने को हैऔर उसके परेकुछ परिन्‍देक़तारें बनाएउन्‍हीं जंगलों को चलेजिनके पेड़ों की शाख़ों पे हैं घोंसलेये परिन्‍देवहीं लौट कर जाएँगेऔर सो जाएँगेहम ही हैरान हैंइस मकानों के जंगल मेंअपना कहीं भी ठिकाना नहींशाम होने को हैहम कहाँ जाएँगे        … Continue reading बेघर – जावेद अख़्तर

दर्द अपनाता है पराए कौन – जावेद अख़्तर

जावेद अख़्तरजावेद अख़्तर,हिंदी कविताएँ February 10, 2019 0 Minutes दर्द अपनाता है पराए कौनकौन सुनता है और सुनाए कौन कौन दोहराए वो पुरानी बातग़म अभी सोया है जगाए कौन वो जो अपने हैं क्या वो अपने हैंकौन दुख झेले आज़माए कौन अब सुकूँ है तो भूलने में हैलेकिन उस शख़्स को भुलाए कौन आज फिर दिल है… Continue reading दर्द अपनाता है पराए कौन – जावेद अख़्तर

दिमाग का लोच्या — अल्फ़ाज़ में नुमायाँ वज़ूद © RockShayar Irfan Ali Khan

इंसानी खोपड़ी भी क्या कमाल की चीज है दिमाग को सुरक्षित रखती, ये वो चीज है मात्र 29 हड्डियों से अपुन की खुपड़ियां बनी हैं 8 कपाल से, 14 चेहरे से, 6 कान से जुड़ी हैं कपाल में ही तो छुपा असली माल है साला 1400 ग्राम का दिमाग़, मचाता कितना बवाल है खरबों न्यूरॉन्स […]… Continue reading दिमाग का लोच्या — अल्फ़ाज़ में नुमायाँ वज़ूद © RockShayar Irfan Ali Khan

कुछ ढ़ूँढ़ता हूँ मैं. — सच्चिदानन्द सिन्हा

तन्हा कभी जब बैठ गुमसुम, सोंचता हूँ मैं । सदियों पुराने गाँव में, कुछ ढूँढ़ता हूँ मैं ।। अपने गाँव की गलियां, कीचड़ से भरे नाले। मिट्टी की बनी दीवार को ,भी ढूँढ़ता हूँ मैं ।। घर के सामने बैठी, गोबर सानती दादी । उपले थापती दीवार पर भी, देखता हूँ मैं ।। स्नेह से […]… Continue reading कुछ ढ़ूँढ़ता हूँ मैं. — सच्चिदानन्द सिन्हा

“मैं बन जाता हूँ हर रोज़ एक इंसान नया” — अल्फ़ाज़ में नुमायाँ वज़ूद © RockShayar Irfan Ali Khan

दिल में उठता है हर रोज़ एक तूफान नया मैं बन जाता हूँ हर रोज़ एक इंसान नया। रातभर आँखें जागकर काम करती रहती हैं तब तामीर होता है ख़्वाबों का एक जहान नया।। via “मैं बन जाता हूँ हर रोज़ एक इंसान नया” — अल्फ़ाज़ में नुमायाँ वज़ूद © RockShayar Irfan Ali Khan