दूरियाँ- नज़दीकियाँ तो दिलों के बीच की बातें हैं।
दीवारों पर इल्ज़ाम क्यों?
जो खुद चल नहीं सकतीं वे दूसरों की दूरियाँ क्या बढ़ाएँगीं?
अक्सर दीवारें रोक लेतीं हैं ग़म अौर राज़ सारे अपने तक,
अौर समेटे रहतीं हैं इन्हें दिलों में अपने।
किलों, महलों, हवेलियों, मकानों, घरों से पूछो……
इनके दिलों में छुपे हैं कितने राज़, कितनी कहानियाँ।
अगर बोल सकतीं दर-ओ-दीवारें…….
बतातीं दीवार-ए-ज़ुबान से, सीलन नहीं आँसू हैं ये उसके।
वह तो गनिमत है कि…..
दीवारों के सिर्फ कान होते हैं ज़ुबान नहीं।