Month: June 2019
मनकवडा घन:
नेहमीप्रमाणेच मनाला भावून टाकणारा लेख
जगावे कवितेसारखे …..
कवितेबद्दलची सुंदर कविता
सोमनाथ – कैफ़ि आज़मी
मुर्तीभंजन म्हणजेच इस्लाम असे समजाऱ्यांना दिलेला हा घरचा आहेर
बुतशिकन कोई कहीं से भी ना आने पाये
हमने कुछ बुत अभी सीने में सजा रक्खे हैं
अपनी यादों में बसा रक्खे हैं
दिल पे यह सोच के पथराव करो दीवानो
कि जहाँ हमने सनम अपने छिपा रक्खे हैं
वहीं गज़नी के खुदा रक्खे हैं
बुत जो टूटे तो किसी तरह बना लेंगे उन्हें
टुकड़े टुकड़े सही दामन में उठा लेंगे उन्हें
फिर से उजड़े हुये सीने में सजा लेंगे उन्हें
गर खुदा टूटेगा हम तो न बना पायेंगे
उस के बिखरे हुये टुकड़े न उठा पायेंगे
तुम उठा लो तो उठा लो शायद
तुम बना लो तो बना लो शायद
तुम बनाओ तो खुदा जाने बनाओ क्या
अपने जैसा ही बनाया तो कयामत होगी
प्यार होगा न ज़माने में मुहब्बत होगी
दुश्मनी होगी अदावत होगी
हम से उस की न इबादत होगी
वह्शते-बुत शिकनी देख के हैरान हूँ मैं
बुत-परस्ती मिरा शेवा है कि इंसान हूँ मैं
इक न…
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Inti Raymi’rata in Peru
Old tradition is began
The Inti Raymi’rata (Quechua for Sun Festival) is a traditional religious ceremony of the Inca Empire in honor of the god Inti, the most venerated deity in Inca religion. It was the celebration of the winter solstice and the Inca New Year, when the hours of light would begin to lengthen again. It is held on June 24.
At dawn on the June solstice, the Inca gathered in the Haucaypata, took off their shoes, and faced northeast in anticipation of the rising sun. When the sun appeared, they would raise two golden cups of chicha. From the plaza, they walked to the Coricancha for the sacrifice of llamas and, in some cases, children.
The first Inti Raymi was in 1412. The last Inti Raymi with the Inca
Emperor’s presence was carried out in 1535. After this, the Spanish
colonists and their Catholic priests banned the ceremony and other
Inca religious…
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निर्झर – द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी
सुंदर कविता
ओ निर्झर!
झर्-झर्-झर्,
कल-कल करता बता रहता तू, प्रतिपल
क्यों अविरल?॥1॥
ओ निर्झर!
गिर-गिरकर,
उत्तुंग शृंग से नीचे बहा उतर कर
क्यों भूर पर?॥2॥
ओ निर्झर!
मुड़-मुड़ कर,
तू इधर-उधर छिपता-फिरता रे भगकर,
क्यों डर कर?॥3॥
ओ निर्झर!
यह हलचल,
तेरे जीवन की सरस धार क्यों चंचल
तू अविकल!॥4॥
ओ निर्झर!
प्रति पल-पल,
मर्मान्त व्यथा से आहत तेरा हृद-तल,
क्यों विह्वल?॥5॥
ओ निर्झर!
झुक-झुक कर,
किस पाप-कर्म का प्रायश्चित सिर नत कर
रे मत डर?॥6॥
ओ निर्झर!
रुक-रुक कर,
पथ के रोड़ों से, पाषाणों से डट कर,
तू रण कर॥7॥
ओ निर्झर!
चल-चल-चल,
स्वच्छन्द मार्ग है तेरा, तू विचरण कर,
रे अविचल?॥8॥
द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी द्वारा अन्य रचनाएँ
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भटकंती फिरोजशहा कोटल्याची
जुन्या दिल्लीची मनोरंजनक माहीती. विशेषत: अशोकस्तंभाबाबतची माहिती अनेकांना आवडेल.
फिरोजशाह कोटला म्हंटलं की बहुतेक लोकांना आठवतं क्रिकेटचं मैदान! अनिल कुंबळेनी दहा विकेट टिपण्याचा पराक्रम ज्या मैदानात केला तेच! त्या मैदानाच्या अगदी बाजूलाच एक ऐतिहासिक स्थळ आहे. ते म्हणजे फिरोजशाह कोटला नावाचा किल्ला. खरंतर मैदानाला नाव मिळण्याचं कारण हा किल्ला आहे. पण सामान्य लोकांच्या दृष्टीने हे समीकरण थोडंसं उलटं आहे. २०१६ च्या आयपीएल मध्ये क्रिकेट प्रोड्युसर म्हणून मी काही सामने या मैदानात केले होते. तेव्हाच या किल्ल्याचे बुरुज दिसले होते. मग नंतर निवांत फोटो काढायला गेलो तेव्हाही रिक्षावाल्याने कोटला म्हंटल्याबरोबर स्टेडियम का अशी पृच्छा केली. तर आज तुम्हाला सांगणार आहे फिरोजशाह तुघलक या सुलतानाने बांधलेल्या फिरोजाबाद शहराची कहाणी. हे दिल्लीचं पाचवं शहर.

फिरोजशहाला बांधकामे करण्याचा छंद तर होताच शिवाय जुनी बांधकामे जतन करण्यासाठी त्यांची दुरुस्ती करण्याचं महत्त्वही त्याला पटलेलं होतं. कुत्ब मिनार, हौज खास, अल्लाउद्दीन खिलजी आणि शमसुद्दीन इल्तमश च्या कबरी या बांधकामांची डागडुजी त्याने केल्याच्या नोंदी आहेत. भारतातील सर्वात जुना मकबरा म्हणजे महिपालपूरचा सुलतान गढीचा…
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उग रहा है दर-ओ-दीवार – मिर्ज़ा ग़ालिब
अंदाजे बयॉं और…… और क्या कहें.
उग रहा है दर-ओ-दीवार से सबज़ा ग़ालिब
हम बयाबां में हैं और घर में बहार आई है
मिर्ज़ा ग़ालिब की अन्य प्रसिध रचनाएँ
यूँ होता तो क्या होता
दिल ही तो है
हर एक बात पे कहते हो तुम कि तू क्या है
अर्ज़-ए-नियाज़-ए-इश्क़ के क़ाबिल नहीं रहा
दिया है दिल
हज़ारों ख़्वाहिशें ऐसी
आमों की तारीफ़ में
ये न थी हमारी क़िस्मत
अज़ मेहर ता-ब-ज़र्रा दिल-ओ-दिल है आइना
अफ़सोस कि दनदां का किया रिज़क़ फ़लक ने
‘असद’ हम वो जुनूँ-जौलाँ गदा-ए-बे-सर-ओ-पा हैं
आ कि मेरी जान को क़रार नहीं है
आमद-ए-सैलाब-ए-तूफ़न-ए सदाए आब है
उग रहा है दर-ओ-दीवार से सबज़ा ग़ालिब
क़यामत है कि सुन लैला का दश्त-ए-क़ैस में आना
कलकत्ते का जो ज़िक्र किया तूने हमनशीं
कहते तो हो तुम सब कि बुत-ए-ग़ालिया-मू आए
कार-गाह-ए-हस्ती में लाला दाग़-सामाँ है
कोह के हों बार-ए-ख़ातिर गर सदा हो जाइये
क्या तंग हम सितमज़दगां का जहान है
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