वो कभी धूप कभी छाँव लगे – कैफ़ि आज़मी

Kayvashaala

वो कभी धूप कभी छाँव लगे ।
मुझे क्या-क्या न मेरा गाँव लगे ।

किसी पीपल के तले जा बैठे
अब भी अपना जो कोई दाँव लगे ।

एक रोटी के त’अक्कुब[1] में चला हूँ इतना
की मेरा पाँव किसी और ही का पाँव लगे ।

रोटि-रोज़ी की तलब जिसको कुचल देती है
उसकी ललकार भी एक सहमी हुई म्याँव लगे ।

जैसे देहात में लू लगती है चरवाहों को
बम्बई में यूँ ही तारों की हँसी छाँव लगे ।

– कैफ़ि आज़मी

शब्दार्थ : 1. पीछा करना

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वक्त ने किया क्या हंसी सितम – कैफ़ि आज़मी

कैफि आझमीकी एक आशयघन रचना

Kayvashaala

वक्त ने किया क्या हंसी सितम
तुम रहे न तुम, हम रहे न हम ।

बेक़रार दिल इस तरह मिले
जिस तरह कभी हम जुदा न थे
तुम भी खो गए, हम भी खो गए
इक राह पर चल के दो कदम ।

जायेंगे कहाँ सूझता नहीं
चल पड़े मगर रास्ता नहीं
क्या तलाश है, कुछ पता नहीं
बुन रहे क्यूँ ख़्वाब दम-ब-दम ।
– कैफ़ि आज़मी

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ये न थी हमारी क़िस्मत – मिर्ज़ा ग़ालिब

मिर्ज़ा ग़ालिबउर्दू शायरी,मिर्ज़ा ग़ालिब December 29, 2017 0 Minutes ये न थी हमारी क़िस्मत कि विसाल-ए-यार होताअगर और जीते रहते यही इंतज़ार होता तेरे वादे पर जिए हम तो ये जान झूट जानाकि ख़ुशी से मर न जाते अगर एतबार होता तेरी नाज़ुकी से जाना कि बँधा था अहद बोदाकभी तू न तोड़ सकता अगर उस्तुवार होता कोई मेरे दिल से पूछे तेरे तीर-ए-नीम-कश कोये ख़लिश कहाँ से होती जो जिगर के पार होता ये कहाँ की दोस्ती है कि बने हैं दोस्त नासेहकोई चारासाज़ होता कोई ग़म-गुसार होता रग-ए-संग से टपकता वो लहू कि फिर न थमताजिसे ग़म समझ रहे हो ये अगर शरार होता ग़म अगरचे जाँ-गुसिल है प कहाँ बचें कि दिल हैग़म-ए-इश्क़ गर न होता ग़म-ए-रोज़गार होता कहूँ किस से मैं कि क्या है शब-ए-ग़म बुरी बला हैमुझे क्या बुरा था मरना अगर एक बार होता हुए मर के हम जो रुस्वा हुए क्यूँ न ग़र्क़-ए-दरियान कभी जनाज़ा उठता न कहीं मज़ार होता उसे कौन देख सकता कि यगाना है वो यकताजो दुई की बू भी होती तो कहीं दो-चार होता ये मसाईल-ए-तसव्वुफ़ ये तेरा बयान ‘ग़ालिब’तुझे हम वली समझते जो न बादा-ख़्वार होता – मिर्ज़ा ग़ालिब