मिर्ज़ा ग़ालिबउर्दू शायरी,मिर्ज़ा ग़ालिब December 29, 2017 0 Minutes ये न थी हमारी क़िस्मत कि विसाल-ए-यार होताअगर और जीते रहते यही इंतज़ार होता तेरे वादे पर जिए हम तो ये जान झूट जानाकि ख़ुशी से मर न जाते अगर एतबार होता तेरी नाज़ुकी से जाना कि बँधा था अहद बोदाकभी तू न तोड़ सकता अगर उस्तुवार होता कोई मेरे दिल से पूछे तेरे तीर-ए-नीम-कश कोये ख़लिश कहाँ से होती जो जिगर के पार होता ये कहाँ की दोस्ती है कि बने हैं दोस्त नासेहकोई चारासाज़ होता कोई ग़म-गुसार होता रग-ए-संग से टपकता वो लहू कि फिर न थमताजिसे ग़म समझ रहे हो ये अगर शरार होता ग़म अगरचे जाँ-गुसिल है प कहाँ बचें कि दिल हैग़म-ए-इश्क़ गर न होता ग़म-ए-रोज़गार होता कहूँ किस से मैं कि क्या है शब-ए-ग़म बुरी बला हैमुझे क्या बुरा था मरना अगर एक बार होता हुए मर के हम जो रुस्वा हुए क्यूँ न ग़र्क़-ए-दरियान कभी जनाज़ा उठता न कहीं मज़ार होता उसे कौन देख सकता कि यगाना है वो यकताजो दुई की बू भी होती तो कहीं दो-चार होता ये मसाईल-ए-तसव्वुफ़ ये तेरा बयान ‘ग़ालिब’तुझे हम वली समझते जो न बादा-ख़्वार होता – मिर्ज़ा ग़ालिब